गोस्वामी तुलसी दास जी ने संत स्वभाव और दुष्ट स्वभाव का वर्णन करते हुए उनके लिए दो उपमाओं का प्रयोग किया है।
वह कहते हैं कि दुष्ट ऐसे होते है जैसे वर्षकाल में जल के सात गिरने वाले ओले।ओले आकाश से गिरकर खुद तो अस्तित्वहीन हो जाते और इसके सात ही वह बिना किसी कारण ही किसानों की फसलों को नष्ट कर देते है। इसी तरह कुछ दुष्ट अपने कर्मों से जीवन भर दुखी रहते है सात ही दूसरों को भी पीड़ा देने में ज़रा भी संकोच नही करते ।ठीक इसके विपरीत संत स्वभाव होता है।यद्यपि संत स्वभाव की तुलना मक्खन से की गई है,तथापि इसे ठीक इसलिए नही माना गया क्योंकि मक्खन तो तब पिघला जब उसे अग्नि का ताप मिले अर्थात जब वह स्वयं पीड़ा पाता है,किन्तु संत का स्वभाव ऐसे होता है जो दूसरों की पीड़ा देखते ही दुखी हो उठता है और स्वयं कष्ट उठाकर भी किसी भी जीव की पीड़ा को दूर करने का प्रयास करता है।
व्यवहारिक जीवन में संत के स्वभाव की करुणा समझने के लिए यहाँ पर एक दृष्टांत उद्धृत करना संदर्भ सापेक्ष होगा।किसी स्थान पर नदी के किनारे एक विरक्त संत रहते थे । वह सुबह उठकर नदी का दर्शन करते थे,उसे प्रणाम कर उसमे नहाते थे और अपनी पूजा इत्यादि की दैनिक क्रिया सम्पन कर भागवत भजन में लीन रहते थे ।नहाते समय उन्होंने देखा कि एक जहरीला बिच्छू पानी में बहता हुआ जा रहा है और यदि जल्दी से उसे बाहर नही निकाला गया तो बहते हुए पानी में उसके प्राण निकल जाएंगे।
संत ने करूणावश उसे अपने हाथ में उठाया ,परंतु जैसे ही उन्होंने बिच्छू को नदी तट पर रखना चाहा, उसने संत के हाथों में अपना ज़हरीला डंक छूभो दिया।संत बिच्छू के विष के दर्द से छटपटा गया और बिच्छू छूटकर पानी में गिरकर अपना जीवन बचाने के लिए छटपटाने लगा।पर संत तो संत ही थे।उस जीव के काटे जाने पर भी उसकी आपत्ति देखकर वह आगे बढ़े और उसे नदी के पानी से बाहर निकालकर तट पर रख दिया।यह संत स्वभाव है और यही मानवता भी है।
नितांत वैयक्तिक स्वार्थ के लिए जीने के अभ्यासी आज के समाज के लिए ऐसा स्वभाव परम आवश्यक है।
वह कहते हैं कि दुष्ट ऐसे होते है जैसे वर्षकाल में जल के सात गिरने वाले ओले।ओले आकाश से गिरकर खुद तो अस्तित्वहीन हो जाते और इसके सात ही वह बिना किसी कारण ही किसानों की फसलों को नष्ट कर देते है। इसी तरह कुछ दुष्ट अपने कर्मों से जीवन भर दुखी रहते है सात ही दूसरों को भी पीड़ा देने में ज़रा भी संकोच नही करते ।ठीक इसके विपरीत संत स्वभाव होता है।यद्यपि संत स्वभाव की तुलना मक्खन से की गई है,तथापि इसे ठीक इसलिए नही माना गया क्योंकि मक्खन तो तब पिघला जब उसे अग्नि का ताप मिले अर्थात जब वह स्वयं पीड़ा पाता है,किन्तु संत का स्वभाव ऐसे होता है जो दूसरों की पीड़ा देखते ही दुखी हो उठता है और स्वयं कष्ट उठाकर भी किसी भी जीव की पीड़ा को दूर करने का प्रयास करता है।
व्यवहारिक जीवन में संत के स्वभाव की करुणा समझने के लिए यहाँ पर एक दृष्टांत उद्धृत करना संदर्भ सापेक्ष होगा।किसी स्थान पर नदी के किनारे एक विरक्त संत रहते थे । वह सुबह उठकर नदी का दर्शन करते थे,उसे प्रणाम कर उसमे नहाते थे और अपनी पूजा इत्यादि की दैनिक क्रिया सम्पन कर भागवत भजन में लीन रहते थे ।नहाते समय उन्होंने देखा कि एक जहरीला बिच्छू पानी में बहता हुआ जा रहा है और यदि जल्दी से उसे बाहर नही निकाला गया तो बहते हुए पानी में उसके प्राण निकल जाएंगे।
संत ने करूणावश उसे अपने हाथ में उठाया ,परंतु जैसे ही उन्होंने बिच्छू को नदी तट पर रखना चाहा, उसने संत के हाथों में अपना ज़हरीला डंक छूभो दिया।संत बिच्छू के विष के दर्द से छटपटा गया और बिच्छू छूटकर पानी में गिरकर अपना जीवन बचाने के लिए छटपटाने लगा।पर संत तो संत ही थे।उस जीव के काटे जाने पर भी उसकी आपत्ति देखकर वह आगे बढ़े और उसे नदी के पानी से बाहर निकालकर तट पर रख दिया।यह संत स्वभाव है और यही मानवता भी है।
नितांत वैयक्तिक स्वार्थ के लिए जीने के अभ्यासी आज के समाज के लिए ऐसा स्वभाव परम आवश्यक है।
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